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बच्चा अभी हुआ नहीं लेकिन लड्डू तीन बार खा लिए। किसानों को फसल का सही भाव देने के बारे में मोदी सरकार ने यही किया है। अभी तक एक भी किसान को बढ़ा हुआ रेट नहीं मिला है। लगता नहीं है कि ज्यादातर किसानों को यह मिलेगा लेकिन तालियां तीन बार पिट गईं, बधाई के पोस्टर- होॄडग लग गए, लड्डू खा लिए। पहली बार लड्डू 1 फरवरी को खाए जब अरुण जेतली ने सरकार के इस ‘ऐतिहासिक’ फैसले की घोषणा की। लड्डू की मिठास में यह कड़वा सच छुप गया कि वित्त मंत्री ने लागत की परिभाषा ही बदल दी थी और अपने मूल वायदे से मुकर गए थे।
दूसरी बार लड्डू 4 जुलाई को खाए जब सरकार ने इस साल खरीफ की फसल के रेट में ‘ऐतिहासिक’ बढ़ौतरी की घोषणा की। फिर लड्डू के बोझ में यह सच दब गया कि इससे ज्यादा चुनावी रेवड़ी तो पिछली सरकार 2009 में बांट चुकी थी। तीसरी बार लड्डू पिछले हफ्ते बांटे गए जब कैबिनेट ने सरकारी खरीद की वाॢषक नीति की घोषणा की। फिर इसे एक नई ऐतिहासिक घोषणा की तरह पेश किया गया। फिर बेचारे मंत्रियों ने मोदी जी को बधाई दी। फिर चमचों ने मीडिया में गुणगान किया। किसान फिर टकटकी लगाए देखता रहा कि कब उसे अपनी मेहनत का फल मिलेगा।
दरअसल सरकारी खरीद की नई व्यवस्था का वायदा वित्त मंत्री अरुण जेतली ने 1 फरवरी को अपने बजट भाषण में ही किया था। तभी उन्होंने नीति आयोग की जिम्मेदारी लगाई थी कि वह जल्द से जल्द ऐसी व्यवस्था सुझाए जिससे किसानों को सचमुच न्यूनतम समर्थन मूल्य का लाभ मिल सके। उसके बाद रबी की फसल बिक गई और खरीफ की बिक्री की शुरूआत हो गई। तब जाकर सरकार ने नई नीति की घोषणा की है। कायदे से तो सरकार को माफी मांगनी चाहिए थी कि जो काम 7 हफ्ते में हो सकता था उसमें 7 महीने लगा दिए। जब तक सरकारी फाइल दिल्ली से स्थानीय मंडी तक पहुंचेगी तब तक अधिकांश किसानों की फसल बिक चुकी होगी। इतनी देर और मशक्कत के बाद जो नीति आई है उसमें बस एक नई बात है।
पहली बार सरकार ने यह माना है कि फसलों का एम.एस.पी. घोषित करने भर से किसान को कुछ मिल नहीं जाएगा। यह भी माना है कि अब तक सरकार भले ही 24 फसलों का दाम घोषित करती थी लेकिन खरीद सिर्फ दो-तीन फसलों की होती थी। बाकी सब फसलों को अधिकांश किसानों को एम.एस.पी. से भी सस्ते भाव पर बेचना पड़ता है लेकिन सिर्फ गलती मानने से तो किसान का पेट भरेगा नहीं। सवाल यह है कि इस गलती को दोहराने से कैसे रोका जाए? ऐसी व्यवस्था कैसे बने जिससे सभी किसान अपनी पूरी फसल कम से कम सरकारी एम.एस.पी. रेट पर तो बेच सकें? इस समस्या का नई नीति में भी तोड़ नहीं है। प्रधानमंत्री प्रचार और नामकरण के उस्ताद हैं। इस नीति को भी नाम दिया है ‘प्रधानमंत्री आशा’ लेकिन अगर इसे ज्यादा गौर से देखेंगे तो इस ‘आशा’ में केवल निराशा ही हाथ लगेगी।
अब सरकारी खरीद तीन में से किसी एक तरीके से होगी। पहला तो पुराना सरकारी खरीद का तरीका है। इस योजना के तहत सरकार राशन की दुकान में बांटने के लिए अनाज खरीदती है या फिर मूल्य समर्थन योजना के तहत जहां भी किसी फसल का बाजार भाव न्यूनतम समर्थन मूल्य से नीचे गिर जाता है तो सरकार उस फसल की खरीद करना शुरू करती है। 7 महीने के बाद सरकार ने तय किया कि हमेशा की तरह इस साल भी मुख्यत: यही तरीका इस्तेमाल किया जाएगा। बदलाव सिर्फ यह है कि सरकार ने अपने बजट में किए मजाक का सुधार करते हुए इस खरीद के लिए सिर्फ 200 करोड़ रुपए की बजाय अब लगभग 16,000 करोड़ रुपए देने का फैसला किया है। साथ में यह घोषणा भी की है कि सरकारी खरीद करने वाली एजैंसियां अब बैंकों से 45,000 करोड़ रुपए का लोन उठा सकेंगी लेकिन इसमें सरकार ने सिर्फ गारंटी दी है, अपनी जेब से कुछ पैसा नहीं डाला है।
वास्तव में यह राशि भी ऊंट के मुंह में जीरा है क्योंकि अगर सरकार सभी फसलों की न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद के बारे में गंभीर है तो उसे कम से कम डेढ़ से दो लाख करोड़ रुपए का इंतजाम करना चाहिए। इस बार भी लड्डू की थाली के सामने यह सच छुपा लिया गया कि केन्द्र सरकार किसी भी फसल की कुल उत्पाद का सिर्फ 25 प्रतिशत खरीदने में ही राज्य सरकार का सहयोग करेगी। बाकी 75 प्रतिशत खरीदना राज्य सरकार का सिरदर्द बना रहेगा। जाहिर है, न नौ मन तेल होगा न राधा नाचेगी। न राज्य सरकारों के पास पैसा होगा, न किसान की फसल की पूरी खरीद की जाएगी। इसके अलावा केन्द्र सरकार ने प्रयोग के तौर पर दो अलग तरीकों की घोषणा भी की है लेकिन इन दोनों से किसान को फायदा नहीं होगा। पहली तो मध्यप्रदेश की बुरी तरह फेल हो चुकी भावांतर योजना है।
योजना यह थी कि किसान बाजार भाव पर फसल को बेचे और अगर बाजार भाव न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम हो तो उस अंतर की भरपाई सरकार करेगी लेकिन भावांतर योजना में किसान को उसको स्वयं मिले दाम की बजाय उसकी मंडी और आस-पड़ोस की मंडियों के औसत दाम और न्यूनतम समर्थन मूल्य में अंतर के हिसाब से पेमैंट किया गया। इससे किसान को भारी नुक्सान हुआ। उधर इस योजना का फायदा उठाने के लिए व्यापारियों ने रातों-रात फसलों के दाम गिरा दिए और बाद में जमकर मुनाफा कमाया। इसका सुधार किए बिना भावांतर योजना को देशभर में लागू करने से किसानों को नुक्सान और व्यापारियों व सटोरियों को मुनाफा होगा।
दूसरा तरीका यह है कि सरकार की तरफ से न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद का काम निजी व्यापारी करेंगे। खरीद, ढुलाई, भंडारण और फिर बिक्री, सब उनकी जिम्मेदारी होगी। सरकार इसके बदले उन्हें 15 प्रतिशत तक शुल्क देगी। सवाल यह है कि अगर फसल का बाजार भाव न्यूनतम समर्थन मूल्य से काफी कम होगा, तो कोई व्यापारी उसे क्यों खरीदेगा? किसान आंदोलनों ने मांग की थी कि इसके बदले सरकार सिर्फ इतना नियम बना दे कि किसी भी व्यापारी के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य से नीचे फसल खरीदना अपराध माना जाएगा। इस पर केन्द्र सरकार चुप है इसलिए कई किसान संगठनों ने यह आशंका व्यक्त की है कि पिछले दरवाजे से सरकार फसलों की खरीद के काम का भी निजीकरण कर रही है।
इस नई नीति से सबसे बड़ी निराशा यह है कि इसने सरकारी खरीद के सबसे बुनियादी सवालों को छुआ तक नहीं है। सच यह है कि पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश और उड़ीसा के कुछ हिस्सों को छोड़कर देश के अधिकांश इलाकों में सरकारी खरीद की सुचारू व्यवस्था ही नहीं है। जब खरीद केन्द्र और व्यवस्था ही नहीं है तो किसान अपनी फसल किसे बेचेगा? सरकारी नीति में इसका कोई उपाय नहीं सुझाया गया। ठेके और बटाई पर खेती करने वाले बहुसंख्यक किसानों के लिए अपनी फसल एम.एस.पी. पर बेचने की कोई व्यवस्था नहीं सोची गई है।
लगता यही है कि एक बार फिर कुॢसयां लड्डू खा जाएंगी, किसान मुंह ताकता रह जाएगा। जिस दिन सरकार इस ‘ऐतिहासिक’ निर्णय की घोषणा कर अपनी पीठ थपथपा रही थी, उस दिन महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश की मंडियों में मूंग की फसल आ चुकी थी। मूंग का न्यूनतम समर्थन मूल्य 6975 रुपए है लेकिन सरकारी वैबसाइट के मुताबिक यह मंडी में 3900 से 4400 के बीच बिक रही थी। मूंग के लड्डू तो कड़वे हो गए, क्या बाकी लड्डुओं की मिठास किसान के घर पहुंच पाएगी?
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