
124वें संविधान संशोधन विधेयक से यह बात साफ हो गई है कि इस सरकार को ऐसे क़दम उठाने में महारत हासिल हो गई है, जो उन्हीं लोगों को ले डूबते हैं, जिनके पक्ष में इनकी घोषणा होती है। नोटबंदी के शुरूआती दिनों में आम लोगों का बड़ा हिस्सा इस ख़ुशी में डूब गया था कि काले धन वालों की फजीहत हो गई। मगर बाद में पता चला कि फजीहत तो उनकी हुई थी जो काले धन वालों की परेशानियों की कल्पना कर आनंद उठा रहे थे। नौकरियां गईं, अर्थव्यवस्था मंद भी हुई, नकदी के लिए लोग मारे-मारे घूम रहे थे, मगर काला धन जस का तस रहा। फिर भी लोग फेर में पड़े क्योंकि नोटबंदी ने एक आनंद की सृष्टि की थी कि देखो पैसेवालों के अब कैसे मुश्किलें बढ़ेंगी।
इसी तरह जिन लोगों को अभी लग रहा है कि सवर्ण समाज का अच्छे दिन शुरू हो गये है, वे दीवार पर लिखी इबारत नहीं पढ़ पा रहे हैं तो सिर्फ इसलिए कि इस कदम ने भी सवर्णों के बड़े हिस्से में आनंद पैदा किया है। इस आनंद की जड़ें नौकरियों व शैक्षिक अवसरों में अपनी संख्या के अनुपात से काफी ज़्यादा जगह घेरने के बावजूद पीड़ित होने के विशिष्ट बोध में है।
यह बोध मंडल आयोग की सिफारिशें लागू होने के बाद से गहरा हुआ है। भले ही सत्ताइस फीसदी आरक्षण के बावजूद ओबीसी केंद्र की सरकारी नौकरियों में 12 फीसदी ही हैं। मगर राजनीति दावों और भविष्य की कल्पना के आधार पर चलती है। परन्तु सवर्णों को यह लग रहा है कि उनके अच्छे दिन आ रहे हैं।
मगर अचम्भे की बात यह है कि सवर्णों का ही समझदार संगठन यूथ फॉर इक्वालिटी ओबीसी राजनीति करने वाली डीएमके के भी पहले इस संविधान संशोधन विधेयक के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट पहुंच गया।
जो संगठन मंडल सिफारिशों के खिलाफ जो बाते प्रकट की थी, क्या वह ही इस विधेयक में छिपी हुई भस्मासुरी संभावनाएं देख पाया है? अल्पकालिक रूप से सवर्णों के खाते में जो फायदा दिख रहा है, उनका दीर्घकालीन रूप में घाटे में बदल जाना लाज़मी है. इसलिए 2019 का चुनाव इस नज़रिये से मज़ेदार होगा कि क्या सवर्ण अपने दूरगामी राजनीतिक नुकसान का सबब बनने वाले लोगो को पुरस्कृत करेंगे।
आरक्षित होने का टैग लगवाकर भौतिक रूप से यह 50 फीसदी अनारक्षित जगह को 40 और 10 के जोड़ में बदलना है। यह विधेयक सुप्रीम कोर्ट से पास नहीं हो पाए, तब भी इतिहास में यह दर्ज होगा कि इस आरक्षण के बाद वैसी हो-हल्ला नहीं मची और न बंद, हड़ताल और हिंसा हुई, जैसा कि मंडल के समय हुआ था।
अनारक्षित पूल में से सवर्णों को पहले जितने प्रतिशत सरकारी नौकरी मिल रही थी, अब भी उतनी ही मिलेगी। मगर आरक्षण के विरोध के सवर्ण तर्कों का खोखलापन ज़्यादा जगजाहिर होगा। मेरिट का हनन, भीख, बैसाखी जैसे बेकार के तमाम विवाद उड़-उड़कर अब वापस अपने ऊपर ही आएंगे।
कुल मिलाकर यह एक कदम आगे और दो कदम पीछे की एक शानदार मिसाल है। सवर्ण राजनीति का एक कदम आगे निश्चित ही हुआ है, क्योंकि संविधान में अब तक आरक्षण को सामाजिक न्याय से ही जोड़ा गया था।
संविधान की किसी धारा में महज आर्थिक आधार पर आरक्षण का कोई प्रावधान नहीं है, क्योंकि आरक्षण सामाजिक भेदभाव को खत्म करने और सामाजिक तौर पर पिछड़े समुदायों का प्रतिनिधित्व दुरूस्त करने के लिए है।
मगर यही विधेयक एक दूसरी संभावना को खोल देता है, जिसे यूथ फॉर इक्वालिटी ने समझा है. यह संभावना है आरक्षण के पचास फीसदी की सीमा के पार जाने की, जिसका देश की ओबीसी राजनीति अपने संख्या बल के आधार पर देर से इंतज़ार कर रही है. जो जातियां ओबीसी से अलग अपने सामाजिक पिछड़ेपन के आधार पर कोटा पाना चाहती थी, उन्हें भी पचास प्रतिशत की वैधानिक बंदिश के खुलने से नया जोश मिलेगा. गुर्जरों ने आंदोलन की घोषणा भी कर दी है. जाट, पाटीदार, मराठा जैसी किसान पेशे की और जातियां मैदान में कूद सकती हैं.
यह विधेयक सवर्ण बबुए के कांधे पर रखी गई ऐसी बंदूक है, जिसका निशाना तो चुनाव है मगर बड़ा झटका बबुए को ही लग सकता है। लोकतांत्रिक राजनीति रस्साकशी के सिद्धांत पर चलती है। जिसमें एक पक्ष को ज़्यादा लाभ मिलता देख दूसरे पक्ष गोलबंद होने लगते हैं. जब तक देश में लोकतंत्र है तब तक संख्या बल का महत्व है।
अब तक सवर्णों का सांस्कृतिक व सामाजिक वर्चस्व बना हुआ है. यह इस बात से भी ज़ाहिर होता है कि आरक्षण लागू होने के इतने साल बाद भी आरक्षित सीटों की तादाद करीब पंद्रह से बीस फीसद से ज़्यादा नहीं हो पाई है, भले ही तकनीकी रूप से पचास फीसद हो।
सवर्णों की मुसीबत यह है कि उदारवादी जनतंत्र का एक व्यक्ति-एक वोट का सिद्धांत दलितों व अन्य पिछड़े वर्गों को संख्यात्मक रूप से प्रभावी होने की इजाजत देता है, जिसका मुकाबला सवर्ण राजनीति तब तक ही कर पाती है, जब तक कि राजनीतिक विमर्श जाति केंद्रित न हो या फिर आरक्षित जातियों के बीच ही टकराव बना रहे। इसलिए यह संविधान संशोधन पिछड़ी जातियों के राजनीतिकरण को तेज़ करेगा।
वैसे भी इस संविधान संशोधन से जातियों के बीच गोलबंदियां और नफ़रत ओर बढ़ेगी, क्योंकि यह सरकार आर्थिक मोर्चे, खास तौर पर नौकरियों के मामले में नाकाम रही है। सरकारी नौकरियां भी कम होती जा रही हैं। आर्थिक असुरक्षा से बाहर निकलने का जब कोई आर्थिक मौका नहीं मिलता है तो सामाजिक पहचानें दुख-दर्द मिटाने के लिए काम में लाई जाती हैं। कम होते रोज़गार व मंद होती अर्थव्यवस्था के दौरान जातियों के बीच प्रतियोगिता तेज़ हो सकती है।
वहीं यह भी हो सकता है कि जैसे पिछड़े में अति पिछड़ा व दलित में महादलित तलाशा गया था, अब अति सामान्य और कम सामान्य की श्रेणियां व जातियां सामने आएं. क्या यह सवर्ण के लिए अच्छे दिन हैं?
उसे छला तो जा रहा है, मगर उसकी ही सहमति से, जो उसके जातिगत पूर्वाग्रहों से निकली है। इतना बड़ा प्रहसन देश में इसलिए भी चल पा रहा है कि अर्थव्यवस्था व राजनीति को ऊपर उठाने व समता की राह पर जाने की जगह सवर्ण जातिगत प्रतियोगिता के बातो में आकर और लालच में फंस गए हैं और तथाकथित जनरल या अनारक्षित मुखौटा उतार कर सवर्ण बनने को राज़ी-खुशी तैयार हैं।
The post 10 फीसदी आरक्षण देकर सवर्णों के कंधे पर चुनावी बंदूक appeared first on National Dastak.
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